Monday, October 24, 2022

दीपावली

                                              दीपावली 











जग-मग, जग-मग झंकृत लड़ियों से ,

तम के ताण्डव को वितीर्ण कराके, 

चहुँ ओर प्रकाश करे; 

आशा के दीप जले |   


दुःख से आप्लावित सुधी जनों के 

आँगन  में छाये कारे बादल; 

तत्क्षण दूर टरे | 

आशा के दीप जले |

 

नव सपनों के नित  नव कोपल को, 

तम की कारा तोड़ ,

नित नव राह मिले;

आशा के दीप जले |

 

सुख की अभिलाषा में भाग रहे, 

जन- मन की झोली में, 

सुख के सपनों की नींद मिले;

आशा के दीप जले |


संस्कृति और सभ्यता अपनी; 

अपने संस्कार से प्लावित हो, 

अपनी राह बहे; 

आशा के दीप जले |


मानव मूल्य तिरोहित न हों, 

मूल्य मनोहर मन भावन से, 

जीवन मूल्य लसे;

आशा के दीप जले |

 

वैमनस्य की कारा टूटे;

मेलजोल की गंगा फिर से,

अपनी धार बहे;

आशा के दीप जले |


जीवन के मधुमय मृदंग पर;

लोकगीत और मधुर राग की;

नित नव गीत चढ़े;

आशा के दीप जले |


जनमानस की संकीर्ण भावना;

चहूँ ओर तथा अतिवाद प्रबलतम;

अति शीघ्र जले;

आशा के दीप जले |


सहृदयता, माधुर्य ,लावण्य आदि, 

जीवन की बगिया के सुन्दर फूलों को;

 फिर से लसित करे ;

आशा के दीप जले |

 

आशाओं की सुन्दर लणियों सी;

सबके जीवन में फिर से; 

सारे जीवन रस भर दे;

आशा के दीप जले |


 मौलिक एवं सर्वाधिकार सुरक्षित | 

                              रवि शंकर उपाध्याय 



Saturday, March 19, 2022

गौरैया


                 गौरैया 







बचपन की स्मृतियों में आती, 

खपरैलों के मुंडेर पर गाती ,

आँगन में भींगे जूठे चावल, 

भींगे फूले रोटी के टुकड़े खाती; 

दिन भर पूरे घर को अपनी 

चीं-चीं की आवाज सुनाती; 

हम छोटे बच्चों की हमजोली; 

फुदक-फुदक कर आँगन के 

गड्ढों में फैले पानी में नाच दिखती; 

कहाँ खो गयी वो चिड़ियों की रानी! 


तुम खोयी तो गाँव खो गया; 

गाँव की अपनी साख खो गयी; 

आन-मान और शान खो गयी,

चौपालों की चहल-पहल, 

दवरी और मचान खो गया; 

वृद्ध जनों का मान खो गया, 

अपने पन का भान खो गया, 

नाई,मोची,बढ़ई,दर्जी; 

धरिकारों की रोजी-रोटी, 

केवट और मल्लाहों के

 घर में रोटी देने वाली, 

उनकी छोटी नाव खो गयी; 

देर रात तक जाड़ों में 

सुख-दुःख कहते बैठे रहते; 

बच्चे,बूढ़े और सभी के 

दुःख,गम,ठंडक हरती, 

तपनी की सोंधी आग खो गयी|  


वो मेरी प्यारी गौरैया! 

अपने कुनबे संग, 

तुम फिर आ जाती;

त्योहारों के कोरे कागज पर, 

रंग भर जाती; 

भूल चुके मीठे रिश्तों में 

मधुरस भर जाती; 

उदारवाद के जहर से जल कर 

नष्ट हो चुकी गाँव की अपनी, 

खुद पर निर्भरता फिर से पा जाते; 

और गाँव हमारे अपने प्यारे, 

सुखमय,हरियालीमय, 

सुखद कलेवर में आ जाते -2 | 


       मौलिक एवं सर्वाधिकार सुरक्षित | 

                              रवि शंकर उपाध्याय 




Thursday, March 17, 2022

होली

         

                          होली  






भ्रमर झुण्ड टोली में 

हर तरफ फिर रहे, 

मदमाती सी मस्ती में 

मकरंद नथुनों में विथ; 

यौवन के गीत गाते;

मधु की कोठारी के 

सर पर मडरा रहे ;

अपनों की सुध नहीं, 

औरों को भरमा रहे ;

आनंद और सुख के गीत 

चहुँ ओर गा रहे हैं | 


प्रकृति आज दूल्हन बन, 

सोलह श्रृंगार कर ,

मन भावन रूप धर, 

मन को भरमा रही ;

सरसों के पुष्प गुच्छ 

कानों की शोभा बन; 

सेमर और पलास के 

नव गुम्फित पुष्प देखो, 

चूनर में गुथ करके 

शोभा बढ़ा रहे;

ठुमक-ठुमक गजगामिनी सी 

चहुँ ओर छा रही है; 

तन-मन की शोभा देख, 

 अम्बर भी  भरमा रहा है; 

हर तरफ सिर्फ ख़ुशी 

और सब आनंदित हैं, 

गा  रहे हैं नाच रहे, 

आनंद विभोर हो 

खुशियां मना रहे हैं|  


चिड़ियों का झुण्ड देखो, 

चहुँ ओर चहक रहा; 

कहीं कूँ-कूँ  कही काँ-काँ, 

कहीं मयूर नाच रहा; 

कहीं कोयल की कूँ.... की ध्वनि, 

अम्बर में छा रही; 

तोतों का पूरा कुनबा 

देखो कहीं जा रहा; 

मस्त हैं सब आपस में; 

हॅंस रहे हैं,गा रहे हैं, 

सुख की अनुभूति करते 

रस रंग आँखों में विथ, 

चहुँ ओर छा रहे हैं|  


फसलों के क्या कहने! 

धीर गंभीर लग रही हैं; 

लक-दक लदी हुई हैं; 

बाली और फलियों से; 

हवा जैसे उन्हें छेड़ 

मन-मन मुसका रही; 

अंदर तक हुलसा रही; 

वे भी आनंदित हो, 

अठखेली का मजा लेती, 

मन ही मन खुश होती, 

खुद ही मुसका रही, 

यौवन रस छा रहा, 

चेहरे की ख़ुशी आज 

रोके न रोकी जाय; 

मन की प्रसन्नता 

तरह-तरह के रंगों में, 

चेहरे पर आ रही है -२ | 


मौलिक एवं सर्वाधिकार सुरक्षित |            

                                रवि शंकर उपाध्याय  


 


Friday, December 31, 2021

नव वर्ष














सूर्य रश्मि की  दस्तक संग,  
नव किरणों के नव गुम्फन संग, 
अगणित तारों  के जाते-जाते,
सुमधुर प्रफुल्लित चिड़ियों सी, 
कलरव करती अगणित किरणों संग; 
नव वर्ष सबका मङ्गल मय हो| 

सब अपने सपनों  को साधे, 
नव जीवन की घुट्टी पीकर,
मधुर मनोहर जीवन पथ पर,
सब अपने वैभव को पा लें;  
सारी दुनिया खुशहालीमय हो; 
नव वर्ष सबका मङ्गल मय हो| 

सुख-दुख आते-जाते हैं; 
स्वास्थ्य लाभ हर मानस का हो; 
धन के पीछे भागती दुनिया, 
मानवता के पीछे भागे;
मानव धर्म सभी अपनायें; 
नव वर्ष सबका मङ्गल मय हो| 

जाति,धर्म की कारा टूटे; 
वर्ण आदि की माया रूठे; 
सब मिल मानव धर्म निभायें;  
आपस में भाई-चारा हो; 
सब कुछ  प्यारा-प्यारा हो; 
नव वर्ष सबका मङ्गल मय हो| 


रोगों  से निजात मिले; 
ओमीक्राँन का भय न सताये; 
जल्दी ही इसका हल निकले;
सबको स्वास्थ्य लाभ मिले;
निरोगी सारी दुनिया हो;
नव वर्ष सबका मङ्गल मय हो| 


प्रकृति का उतना ही दोहन हो; 
जितने की हो हमें जरुरत;
महत्वाकांक्षा की बलिवेदी पर,
अपने मूल्य बलिदान न हों; 
प्रकृति का तांडव फिर न बरपे;
नव वर्ष सबका मङ्गल मय हो| 

आर्थिक मन्दी की इस कठिन गली से,
हम सारे सकुशल लौटें;
सबको मन चाही  नौकरी मिले;
उनके चेहरे पर मुस्कान खिले;
घर आँगन में खुशियाँ लौटे; 
नव वर्ष सबका मङ्गल मय हो| 

दुनिया के हर गांव  की गलियाँ, 
फुलों के सुगन्ध से महके; 
सुख की नदियाँ  कल कल करती, 
हर घर आँगन में आकर, 
हर घर में  खुशियाँ लाये;
नव वर्ष सबका मङ्गल मय हो| 

सोच बड़ी हो हर मानव की;  
सबमें अपनापन बिखरे; 
तुच्छ  स्वार्थ के वशीभूत हो,
मानवता का धर्म न भूलें; 
वसुधैव कुटुम्बकम् फलीभूत हो; 
नव वर्ष सबका मङ्गल मय हो| 

आती-जाती साँसों  संग,  
प्रतिपल-प्रतिक्षण  जीते जी; 
जीवन की अविरल गंगा में,  
परहित  ही हो धर्म  सदा; 
मानवता की सदा विजय हो; 
नव वर्ष सबका मङ्गल मय हो| 

अपनी मूल्यवान संस्कृति;  
और उसकी  सम्बृद्ध  परम्परा,
नव किरणों से उर्जित हो कर
जन मानस में फिर से फैले; 
विश्व गुरु फिर से हम हों; 
नव वर्ष सबका मङ्गल मय हो| 


मौलिक एवं सर्वाधिकार सुरक्षित | 
                                रवि शंकर उपाध्याय 

Monday, February 15, 2021

बसन्त

                     बसन्त  






सिहरन सी तन में उठे, 

अंग-अंग महक उठे, 

मन प्रफुल्लित,तन प्रफुल्लित, 

जीवन बहका गया; 

देखो बसन्त आ गया| 


हवा बहकी-बहकी बहे, 

फूलों की सुगंध लिए,

घर,आँगन,गली,कूचा, 

उपवन महका गया;| 

देखो बसन्त आ गया| 


सरसों के फूल बिखरे, 

अम्बर की छाँव में; 

पीतवस्त्र धारण किये, 

पतली कमर लिए, 

नयन-बाण छोड़ रही, 

जीवन रस घोल रही, 

सारा जग भरमा गया; 

देखो बसन्त आ गया| 


अम्बर की शोभा अलग, 

चहुँ ओर ख़ुशी छायी, 

पेड़ों ने वस्त्र त्याग, 

नए वसन ग्रहण किया; 

देखो बसन्त आ गया| 


मन-मयूर नाच रहा, 

हर तरफ हरा-भरा, 

फूलों से मकरंद उड़, 

नथुनों में छा गया; 

देखो बसन्त आ गया| 


फसलों से खेत लसे; 

हरे-भरे खेत लहके, 

बाली पर भौंरों का झुण्ड, 

मन को सहला गया; 

देखो बसन्त आ गया| 


आँगन की चहल-पहल, 

रिश्तों में मिठास घोले; 

चिड़ियों की कलरव ध्वनि, 

चित को चहका गया; 

देखो बसन्त आ गया| 


नव युगल का प्रेम गीत,

 गली,गली छा गया; 

उनको न कोई  होश रहा! 

उनका दिन आ गया; 

 देखो बसन्त आ गया|-2  

                 रवि शंकर उपाध्याय 

   मौलिक एवं सर्वाधिकार सुरक्षित | 

Saturday, February 13, 2021

प्यार आजकल

                    प्यार आजकल



 






पहली नज़र में भा गये, 

दिल में उसके छा गये, 

दिल ज़ोर से धड़क उठा; 

यही है प्यार आजकल!


न उससे कुछ पूछा कभी; 

न उसकी राय ही लिया!

खुद ही सब निर्णय लिया!

यही है प्यार आजकल!


सारे काम-धाम छूटे; 

अपने सारे उससे रूठे; 

उसने न परवाह किया; 

यही है प्यार आजकल!


उसने सब जतन किया, 

जिससे उसकी वह बने; 

उसका प्रयास व्यर्थ रहा; 

यही है प्यार आजकल!


अब वह गुस्से में हुआ, 

इधर-उधर फिर रहा; 

दिल में द्वेष पल रहा; 

यही है प्यार आजकल!


अगर वह मेरी न हुई; 

किसी और की न होने देंगे; 

यही विचार पल रहा; 

यही है प्यार आजकल!


चेहरे पर गुमान उसे; 

न चेहरा सुन्दर रहने देंगे! 

रात-दिन वह सोच रहा;

 यही है प्यार आजकल!


उसको कुछ पता नहीं,  

वह पीछे उसके लग लिया; 

चेहरा उसका झुलस दिया! 

यही है प्यार आजकल!


वह दर्द से तड़प रही; 

तमाशबीन जुट गये!

सबने वीडियो बनाया!

यही है प्यार आजकल!


बाद में पकड़ा गया वह;  

अब जेल में पड़े हुये,

पश्चाताप कर रहा; 

यही है प्यार आजकल!


उसकी तो जिंदगी ख़राब! 

झुलसा हुआ चेहरा लिये,

प्रारब्ध को है कोस रही!

यही है प्यार आजकल!


प्यार जैसी भावना भी 

फूट-फूट रो रही; 

न उसका अब भविष्य कोई!

क्या हो रहा है आजकल?-2 

               रवि शंकर उपाध्याय 

मौलिक एवं सर्वाधिकार सुरक्षित|  

Saturday, February 6, 2021

चिड़िया

                            चिड़िया  



अपने को सयानी समझ, 


चिड़िया उड़ चली; 

अपनों से दूर, 

बाप के स्नेह; 

माँ के प्यार; 

बहनों के आपसी नोक-झोंक

को छोड़; 

अपना घर बसाने!


उसे नहीं पता कि, 

जमाना कितना जालिम है!

खुले अध-खुले पंख; 

नैसर्गिक लावण्य; 

और निश्छल मन; 

कभी भी तोड़ सकता है; 

अपने श्वार्थ,कपट 

और कुटिल चालों से 

उसे अपनों से दूरकर, 

सामाजिक बहिष्कार का दंश दे, 

कहीं का भी नहीं छोड़ेगा! 

और,

स्वर्ग जैसे घोसले को उजाड़; 

उसके पंख उखाड़; 

माँ ,बाप,बहनों 

और अपनों की 

नज़रों से गिरा!

उसे उसकी ही

 नज़रों से गिरा देगा! 

और,

नदी के बहते जल सा, 

उसके सपने बहा देगा-2| 

          रवि शंकर उपाध्याय 

मौलिक एवं सर्वाधिकार सुरक्षित|